(निसार अहमद सिद्दीकी)
मौलाना हसरत मोहानी ने जंग-ए-आज़ादी का सबसे जुनूनी और जज़्बाती नारा- “इंक़लाब ज़िंदाबाद” दिया था। मौलाना हसरत मोहानी ने जब यह नारा दिया, तो पूरा हिन्दोस्तान इस नारे से गूंज उठा। जंग-ए-आज़ादी के मतवालों में यह नारा जोश और जज़्बा पैदा करता था। धरना प्रदर्शनों और रैलियों में यह नारा हर किसी की ज़ुबान पर रहता था। मौलाना मोहानी अंग्रेज़ हुक़ूमत के इतने सख़्त मुख़ालिफ़ थे कि उन्होंने अंग्रेज़ों से देश के मुक़म्मल आज़ादी की मांग तक कर डाली थी। मौलाना हसरत मोहानी को वैसे तो पूरा देश जानता है, लेकिन उनकी धर्मपत्नी निशातुन्निसा बेगम भी अपनी दिलेरी और साहस के लिए जानी जाती हैं। 1916 में जब मौलाना मोहानी जेल में थे, तब निशातुन्निशा ने ना सिर्फ़ अंग्रेज़ी अफ़सरों का डंटकर मुकाबला किया, बल्कि उनको कोर्ट के अंदर चुनौती भी दी थी।
निशातुन्निसा बेगम का जन्म सन् 1885 में उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के मोहान के एक साधारण परिवार में हुआ था। उनके पिता सैयद शबीब हसन मोहानी हैदराबाद हाईकोर्ट में वकील थे। निशातुन्निसा ने उर्दू, अरबी और फारसी ज़ुबानों की शिक्षा हासिल की थी। वर्ष 1901 में उनका निकाह हसरत मोहानी से हुआ। मौलाना हरसत मोहानी से जब उनकी शादी हुई, तब वह राजनीति से बिल्कुल अंजान थीं। लेकिन वक़्त ऐसा करवट लिया कि जो महिला घर की ज़िम्मेदारियों में मशगूल रहती थी, वह कोर्ट-कचहरियों से लेकर वज़ीर-ए-हिन्द तक अपनी निडरता और बेबाकी के लिए मशहूर हो गई।
दरअसल पहली बार जब हसरत मोहानी जेल भेजे गए, तब निशातुन्निसा अपनी बेटी के साथ घर पर अकेली थीं। जिस वक्त हसरत मोहानी को अंग्रेज़ खींचते हुए जेल ले जा रहे थे, तब उनकी बेटी बुखार की तपिश में जल रही थी। यह सब कुछ निशातुन्निसा के लिए बिल्कुल नया था, वह पहली बार ऐसा देख रही थीं। लेकिन उन्होंने इन मुसीबतों का डंटकर मुकाबला किया। उन्होंने अपने शौहर को लिखे अपने पहले खत में अपने जज्बात, साहस और दिलेरी को दिखा दिया था। निशातुन्निसा ने हसरत मोहानी को लिखा- ‘तुम पर जो मुसीबत पड़ी है उसे मर्दानावार बर्दाश्त करो। मेरा या घर का बिल्कुल ख्याल मत करना। खबरदार, तुम्हें किसी किस्म की कमजोरी का एहसास न हो।’ अपनी पत्नी के इस जज़्बे और साहस को देखकर हसरत मोहानी खत पढ़ते-पढ़ते रोने लगे थे। वहीं जब 13 अप्रैल 1916 को मौलाना हसरत मोहानी को दूसरी बार गिरफ्तार किया गया तब निशातुन्निसा ने घर की चहारदीवारी से निकलकर खुद मुकदमे की पैरवी की ज़िम्मेदारी संभाल ली। निशातुन्निसा खुद कचहरी जातीं और दिलेरी के साथ अंग्रेज़ी हुक़ूमत के सामने खड़ी रहतीं।
एक बार मुकदमे की पैरवी के दौरान एक अंग्रेज़ अफ़सर ने उन्हें गिरफ्तारी का डर दिखाकर धमकाने की कोशिश की। निशातुन्निसा उस अंग्रेज़ अफ़सर से बिल्कुल नहीं डरीं और उसको करारा जवाब देते हुए कहा- तुम मुझे गिरफ्तार कर सकते हो, लेकिन रोक नहीं सकते हो। इसके बाद किसी की भी हिम्मत ना हुई, जो उनको धमका सके या फिर उनके साथ इस तरह से पेश आ सके। निशातुन्निसा के बारे में एक किस्सा और मशहूर है जब वह भारत की नामचीन महिलाओं के एक डेलीगेशन के साथ साथ वजीर-ए-हिन्द से मुलाकात करने पहुंची। इस मुलाकात के दौरान उन्होंने मज़बूती से देश की महिलाओं की बात रखी।
देहाती माहौल से पली-बढ़ी होने के बावजूद भी निशातुन्निसा हमेशा मज़बूती के साथ हसरत मोहानी के साथ खड़ी रहती थीं। शायद यही वजह है कि हरसत मोहानी को उन पर बड़ा फख्र रहता था। निशातुन्निसा के बारे में बीअम्मा अबादी बानो बेगम की चिट्ठियों में भी जिक़्र मिलता है। उमा नेहरू को लिखी एक चिट्ठी में बीअम्मा ने लिखा कि ‘मुझे खुशी है कि आपके और उस बहादुर बेटी निशातुन्निसा बेगम के साथ मुझे भी महिलाओं के उस डेलीगेशन में शामिल किया गया है, जो तमाम भारत की महिलाओं की तरफ से वजीर-ए-हिन्द से मिलने जाना है।’
मौलाना हसरत मोहानी को आज़ादी की लड़ाई के लिए हौंसला देते-देते निशातुन्निसा खुद जंग-ए–आज़ादी की शानदार किरदार बनकर उभरीं। एक गृहणी की भूमिका निभाने वाली निशातुन्निसा स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका में रहीं। आज़ादी के अमृत उत्सव में देश को जंग-ए-आज़ादी के महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को याद किया जा रहा है, तो उसमें बेशक़ निशातुन्निसा बेगम जैसी महिलाओं का दर्ज़ा बुलंद होगा, जिन्होंने हिम्मत और दिलेरी के साथ अंग्रेज़ी हुक़ूमत का सामना किया था।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और जामिया मिल्लिया इस्लामिया में रिसर्च स्कॉलर हैं)