भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अजमेर दरगाह की भूमिका

साकिब सलीम

‘‘अजमेर शरीफ दरगाह निस्संदेह खतरे का केंद्र है … राजद्रोह कमोबेश दरगाह तक ही सीमित है और वहां क्या हो रहा है, इसका सबूत मिलना बहुत मुश्किल है.’’ यह अंश 1922 में खुफिया अधिकारियों द्वारा ब्रिटिश सरकार को सौंपी गई एक गुप्त रिपोर्ट से लिया गया है.

दरगाहों और सूफी केंद्रों को लोकप्रिय रूप से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सबसे आगे नहीं माना जाता है. अज्ञात कारणों से, लोगों का मानना है कि अजमेर दरगाह ने संघर्ष में कोई या बहुत कम भूमिका नहीं निभाई. जबकि उसने राष्ट्रवादी गतिविधियों के एक केंद्र के रूप में इतना काम किया कि ब्रिटिश सरकार ने दरगाह की गतिविधियों पर नजर रखनी शुरू कर दी थी.

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जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद गठित समिति ने अपने निष्कर्षों में बताया कि भारतीय अंग्रेजों के खिलाफ एक लोकप्रिय विद्रोह की योजना बना रहे थे. इस योजना पर मौलाना अब्दुल बारी फिरंगीमहली के नेतृत्व में उर्स के दौरान राष्ट्रवादियों ने चर्चा की थी.

जासूस नियमित रूप से दरगाह में राष्ट्रवादी गतिविधियों पर सरकार को अद्यतन सूचना देते थे. 1920 में उन्होंने बताया कि 5,000 से अधिक लोगों ने ईदगाह में एक बैठक में भाग लिया, जिसे लाला चंद करण ने संबोधित किया था, जिन्होंने लोगों से अंग्रेजों से लड़ने के लिए कहा, क्योंकि वे गोहत्या को बढ़ावा देते हैं, पंजाब में लोगों का नरसंहार करते हैं और मुसलमानों और हिंदुओं के बीच फूट पैदा करते हैं. इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि अजमेर दरगाह के पेश इमाम ने अंग्रेजों की हार के लिए प्रार्थना की, जिसके बाद मौलवी मोइनुद्दीन ने लोगों से विदेशी शासकों द्वारा दी गई उपाधियों को त्यागने के लिए कहा.

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1921 की एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि शुक्रवार की नमाज के दौरान दरगाह में ब्रिटिश विरोधी भाषण दिए जा रहे थे. 1922 में, खुफिया अधिकारियों ने फिर से बताया कि दरगाह पर उर्स एक ऐसा अवसर होगा, जहां राष्ट्रवादी राष्ट्रवादी विचारों पर चर्चा करने के लिए बैठक करेंगे.

1922 की एक खुफिया रिपोर्ट में सबसे विस्फोटक जानकारी होती है. रिपोर्ट में दावा किया गया है कि राजपूताना में मुसलमानों और हिंदुओं ने अजमेर के मौलवी मोइनुद्दीन के साथ निष्ठा की शपथ ली थी. उनके निर्देशन में वे अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की तैयारी कर रहे थे. एक सशस्त्र उग्रवादी संगठन जमीयत उल-थबा की स्थापना की गई थी और देश के विभिन्न स्थानों से हथियार खरीदे गए थे. जमीयत उल-थबा ने एक प्रस्ताव पारित किया और घोषणा की कि अंग्रेज धर्म, राष्ट्र और देश के दुश्मन हैं और उनसे बदला लिया जाएगा.

आजादी के 75 साल बीत चुके हैं, लेकिन हममें से ज्यादातर लोग यह आजादी को दिलाने में अजमेर दरगाह की भूमिका से अनभिज्ञ हैं.

साभार: आवाज द वॉइस

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