मुस्लिम फ़क़ीर से जुड़ा है लोक पर्व लोहड़ी

फ़िरदौस ख़ान

जी, हां यह बात सच है. कहा जाता है कि दुल्ला भट्टी नाम के एक मुस्लिम फ़क़ीर बाबा थे. उन्होंने एक हिन्दू यतीम लड़की की परवरिश की थी. फिर जब वह विवाह योग्य हुई तो उन फ़क़ीर बाबा ने उसकी शादी के लिए घूम-घूमकर पैसे इकट्ठे किए. फिर फ़क़ीर बाबा ने बड़ी धूमधाम से एक हिन्दू लड़के से उसका विवाह किया. इसलिए पंजाबियों में उस फ़क़ीर बाबा की बहुत इज़्ज़त थी. लोग उन्हें बहुत मानते थे. साम्प्रदायिक सौहार्द की इस मिसाल की याद में यह त्यौहार मनाया जाता है.

इस त्यौहार से जुड़ी और भी कई किवदंतियां हैं. एक अन्य कहानी के मुताबिक़ सम्राट अकबर के ज़माने में लाहौर से उत्तर की तरफ़ पंजाब के इलाक़े में दुल्ला भट्टी नामक एक डाकू हुआ था, जो अमीर ज़मींदारों को लूटकर ग़रीबों की मदद करता था.

उसका मानना था कि ज़मींदार ग़रीबों का हक़ मार कर ही अमीर बने हैं और ग़रीबों की ख़ून-पसीने की कमाई से उन्होंने अपनी तिजोरियां भर रखी हैं. यह भी कहा जाता है कि वे ज़ालिम लोगों से अग़वा की हुई लड़कियों को आज़ाद करवाता था. इतना ही नहीं, वे इन लड़कियों का योग्य लड़कों से विवाह भी करवा दिया करता था.

दरअसल भारत तीज-त्यौहारों का देश है. यहां अमूमन हर महीने कोई न कोई त्यौहार आता रहता है. बहुत से त्यौहारों का ताल्लुक़ मज़हब से है, तो बहुत से त्यौहारों का नाता लोक जीवन से है. हालांकि ये त्यौहार भी भारत की प्राचीन संस्कृति से ही जुड़े हैं.

जनमानस द्वारा मनाए जाने वाले ये लोक पर्व जहां जीवन में नई ऊर्जा का संचार करते हैं, वहीं ये सामाजिक सद्भाव, आपसी प्रेम और भाईचारे के भी प्रतीक हैं. ऐसा ही एक लोक पर्व है लोहड़ी.

लोहड़ी उत्तर भारत ख़ासकर पंजाब और हरियाणा का एक प्रसिद्ध लोक त्यौहार है. जिन इलाक़ों में पंजाबी रहते हैं, वहां भी यह त्यौहार ख़ूब हर्षोल्लास से मनाया जाता है. पंजाब और हरियाणा के अलावा जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली में भी लोहड़ी मनाने का चलन है.

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लोहड़ी पौष माह के आख़िरी दिन सूर्यास्त के बाद मनाई जाती है. अमूमन यह दिन 13 जनवरी को पड़ता है. लोहड़ी से कई दिन पहले बच्चे लोहड़ी के गीत गाते हुए घर-घर जाकर लकड़ियां और उपले इकट्ठे करते हैं. फिर लोहड़ी के दिन मोहल्ले की किसी खुली जगह पर लकड़ियों और उपलों को क़रीने से लगाकर एक ढेर बनाया जाता है.

लोहड़ी की शाम को लोग सामूहिक रूप से आग जलाकर उसकी पूजा करते हैं. महिलाएं आग के चारों तरफ़ चक्कर काट-काटकर लोकगीत गाती हैं. पुरुष भंगड़ा करते हैं और महिलाएं गिद्दा करती हैं.

लोग अपनी श्रद्धा के अनुसार रेवड़ी, मूंगफली, खील और मक्की के दाने आदि अग्नि को समर्पित करते हैं. इसके बाद रेवड़ी, मूंगफली, खील, गजक, गुड़ और तिल के लड्डू आदि लोगों में प्रसाद के रूप में बांटे जाते हैं.

बहुत से लोग इस आग में से दहकते हुए अंगारे निकाल कर अपने घरों में ले जाते हैं. वे ऐसा करने को शुभ मानते हैं. इस त्यौहार के मौक़े पर महिलाएं अपनी विवाहित बेटियों के घर ‘त्यौहार’ भेजती हैं, जिसमें रेवड़ी, मूंगफली, गजक और तिल से बनी बर्फ़ी और लड्डू आदि शामिल होते हैं.

लोहड़ी सर्दियों का त्यौहार है. जब उत्तर भारत में कड़ाके की ठंड पड़ती है और शीत लहर से आम जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है, तब यह त्यौहार आता है. ख़ून जमा देने वाली ठंड में जगह-जगह जलती लोहड़ी की आग माहौल में गरमाहट पैदा कर देती है.

राह चलते मुसाफ़िर भी रुक कर इसकी आग में हाथ सेंक लेते हैं. वे एक-दूसरे से बात करते हैं. इस बहाने मोहल्ले के लोगों को एक-दूसरे से मिलने और बतियाने का वक़्त और बहाना भी मिल ही जाता है.

गुज़रते वक़्त के साथ बहुत कुछ बदल जाता है. तीज-त्यौहार भी इससे अछूते नहीं रहे. शहरों में तो बच्चों द्वारा लोहड़ी के लिए लकड़ियां और उपले इकट्ठे करने का चलन तक़रीबन ख़त्म ही हो गया है.

इतना ही नहीं, पहले घरों में ईंधन के तौर पर लकड़ियां जलाई जाती थीं. अब इनकी जगह गैस सिलेंडर ने ले ली है. ऐसे में लोग लकड़ियां और उपले कहां से दें. गांव-देहात में तो बच्चों को लोहड़ी के लिए लकड़ियां और उपले मिल जाते हैं, लेकिन शहरों में नहीं मिल पाते. इसलिए अब लोग आपस में चन्दा इकट्ठा करके बाज़ार से जलावन ख़रीदते हैं.

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लोहड़ी के गीत का नाता एक लड़की से ज़रूर है, इतना तय है. यह गीत आज भी लोहड़ी के मौक़े पर ख़ूब गाया जाता है-

लोहड़ी का गीत

सुंदर मुंदरीए होए

तेरा कौन बचारा होए

दुल्ला भट्टी वाला होए

तेरा कौन बचारा होए

दुल्ला भट्टी वाला होए

दुल्ले धी ब्याही होए

सेर शक्कर पाई होए

कुड़ी दे लेखे लाई होए

घर घर पवे बधाई होए

कुड़ी दा लाल पटाका होए

कुड़ी दा शालू पाटा होए

शालू कौन समेटे होए

अल्ला भट्टी भेजे होए

चाचे चूरी कुट्टी होए

ज़िमींदारां लुट्टी होए

दुल्ले घोड़ दुड़ाए होए

ज़िमींदारां सदाए होए

विच्च पंचायत बिठाए होए

जिन जिन पोले लाई होए

सी इक पोला रह गया

सिपाही फड़ के ले गया

आखो मुंडेयो टाणा टाणा

मकई दा दाणा दाणा

फ़क़ीर दी झोली पाणा पाणा

असां थाणे नहीं जाणा जाणा

सिपाही बड्डी खाणा खाणा

अग्गे आप्पे रब्ब स्याणा स्याणा

यारो अग्ग सेक के जाणा जाणा

लोहड़ी दियां सबनां नूं बधाइयां…

बहरहाल, लोहड़ी का त्यौहार आज भी बेहद प्रासंगिक है, जो प्रेम, भाईचारे और मानवता का संदेश देता है.

(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं)

साभार: आवाज द वॉइस

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